मन की बात जुबान पर (जीवन में मृगतृष्णा)

प्रभु की कृपा से परिवार सर्वसम्पन्न था, लेकिन जीवन में नीरसता बनी रहती थी। हमेशा एक अहसास मन को विचलित किये रहता था, मानो कोई बुला रहा हैं। यहीं चंचलता की मुझे जंगलो और सुनसान जगहों की और खींचती रहती थी और खींचा चला जाता था, एक अज्ञात जगह बिना किसी उद्देष्य के एक बार इसी विवशता के वश, जब मैं श्री झाडखण्डनाथ कि पावन स्थली से गुजर रहा था, मेरा मन शान्त होने का अहसास कराते हुए, अनायास ही सार्थी से पावन स्थली की ओर मुड कर कुछ समय यहां व्यतीत करने का हुआ।

यहां के सम्मोहिनी वातावरण के साथ पक्षियों की मधुर वाणी ने मन को मोह लिया, ऐसा अहसास हुआ, कि मेरी खोज शायद यहीं पावन स्थली थी, उस समय तक मुझे यह अहसास नहीं हुआ था, कि यहीं मेरी अन्तिम यात्रा का पढाव रहेगा। इस स्थली को पहले मैं एक सुन्दर एकान्त रमणीक स्थान की संज्ञा दे चुका था, पर क्षणी नजर दूसरी तरफ फेरते हुए एक महात्मा को धूनी पर रमा पाया और पास में ही भोलेनाथ का शिवलिंग देखा, तो मैं देखते ही रह गया, मेरी निगाहें मानो हटने का नाम नहीं ले रही थी और मन शांत ही नहीं पूर्ण आष्वस्त हो चुका था कि, यही है मेरी मृगतृष्णा, जो मुझे भटका रही थी । मैं नही जानता, कैसे महात्मा से मन की बात कही, महात्मा मन परख कर मुझे शिवमंदिर निर्माण का आर्षीवाद देकर श्री झाडखण्डनाथ की शरण में ले लायें।

मैं आज आष्वस्त ही नहीं धन्य हो गया, श्री झाडखण्डनाथ की यात्रा करके और यह शिव कृपा ही रही कि, मेरे जीवन काल तक श्री झाडखण्डनाथ ने अपना आर्शीवाद बनाये रखा।

मैं आभारी हूँ, श्री गोविन्दबाबा का, जिन्होंने  अपने कर कमलों द्वारा मेरी जीवन यात्रा को सफल ही नहीं, श्री झाडखण्डनाथ के चरणों में समर्पित करने का मार्ग दिखाया।

’’जय गुरूदेव श्री गोविन्दबाबा’’

                                                                                       

                                                                                                                                    स्वर्गीय श्री बब्बू जी सेठ

                                                                                                                                    का संस्मरण मित्रों द्वारा